तिकोने मुकाबले में भाजपा के खिलाफ लड़ते हुए भी, एक-दूसरे के खिलाफ लड़ रही आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का वोट आपस में जोड़े जाने का चुनाव नतीजों के हिसाब से कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है। फिर भी, इस वोट का जोड़कर देखा जाना इसलिए प्रासंगिक है कि जैसा कि करीब दस महीने पहले ही हुए संसदीय चुनाव ने दिखाया था, इन पार्टियों का चुनाव के लिए साथ आना सिर्फ कोरी कल्पना का ही मामला नहीं था।
आखिरकार, दिल्ली में वह हो गया, जिसकी बहुतों द्वारा आशंकाएं जताई जा रही थीं। भाजपा सत्तर में से 48 सीटें जीतकर, आई ईस साल के बाद दिल्ली में सत्ता निर्णायक तरीके से वापसी करने का मौका मिल गया। और बारह वर्ष बाद, दिल्ली के चुनाव में जनता का फैसला आम आदमी पार्टी नाम की उस नयी राजनीतिक पार्टी के खिलाफ आया है, जो राजधानी दिल्ली से ही धूमकेतु की तरह उठी थी, जिसका दिल्ली से ही अस्त होने की भविष्यवाणियां सुनाई देने लगी हैं। यह दूसरी बात है कि हालांकि आम आदमी को सिर्फ 22 सीटें मिली हैं और वह भाजपा से पूरे 26 सीटों से पिछड़ गयी है, फिर भी दोनों पार्टियों के वोट में सिर्फ 2 फीसदी का अंतर रहा है। इस चुनाव में भाजपा को जहां 45.56 फीसदी वोट मिले हैं, आम आदमी पार्टी को 43.57 फीसद वोट पर ही संतोष करना पड़ा है। बेशक, यह हमारी ‘जो पहले आए, सब ले जाएÓ पर आधारित चुनाव प्रणाली की विचित्रता का हिस्सा है कि सिर्फ 2 फीसदी वोट के अंतर से भाजपा, आप से दोगुनी से ज्यादा सीटें पाने में कामयाब रही है।
हैरानी की बात नहीं है कि संघ-भाजपा, इस जीत को लेकर न सिर्फ बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं बल्कि इस चुनावी जीत को भाजपा और मोदी राज के पक्ष में दिल्ली की जनता का जोरदार जनादेश साबित करने की भी कोशिश कर रहे हैं। इसके बल पर यह साबित करने की भी कोशिश की जा रही है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जो धक्का लगा था, देश की जनता अब अपनी उस भूल का ‘सुधारÓ कर रही है, लोकसभा चुनाव के बाद से हरियाणा, महाराष्टï्र और अब दिल्ली में भाजपा जीते, इसका जीता-जागता सबूत हैं। लेकिन, स्पष्टï जनादेश के ये दावे इस मायने में संदेहास्पद हैं कि न सिर्फ भाजपा को आम आदमी पार्टी के मुकाबले केवल 2 फीसदी वोट की बढ़त हासिल हुई है और भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियां मिलकर भी, 47 फीसदी का आंकड़ा नहीं छू पाई हैं, भाजपा और उसके सहयोगियों के घोषित विरोध के मंंच के आधार पर चुनाव लड़ रही कांग्रेस को भी इस चुनाव में 6.34 फीसद वोट मिला है और उसका तथा आम आदमी पार्टी का वोट मिलकर ही पचास फीसदी के करीब हो जाता है। भाजपा के विरोध के आधार पर सीमित संख्या में सीटों पर चुनाव लड़ी वामपंथी पार्टियों का वोट भी जोड़ लिया जाए तो, भाजपा के विरुद्घ जनादेश का बल 50 फीसदी से ज्यादा वोट का हो जाता है। बेशक, तिकोने मुकाबले में भाजपा के खिलाफ लड़ते हुए भी, एक-दूसरे के खिलाफ लड़ रही आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का वोट आपस में जोड़े जाने का चुनाव नतीजों के हिसाब से कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है। फिर भी, इस वोट का जोड़कर देखा जाना इसलिए प्रासंगिक है कि जैसा कि करीब दस महीने पहले ही हुए संसदीय चुनाव ने दिखाया था, इन पार्टियों का चुनाव के लिए साथ आना सिर्फ कोरी कल्पना का ही मामला नहीं था, बल्कि एक व्यावहारिक संभावना का मामला था। और जैसा कि देश में जनतंत्र तथा धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों की परवाह करने वाली अनेक ताकतों तथा लोगों ने चुनाव से पहले ही आगाह भी किया था, संघ-भाजपा को सत्ता से दूर बनाए रखने के लिए, आम तौर पर तमाम संघ-भाजपा विरोधी ताकतों का और खासतौर पर आप तथा कांग्रेस का साथ आना, जरूरी था। इस आगाही का वजन लोकसभा चुनाव में भाजपा के दिल्ली में सभी सात सीटें एक बार फिर जीतने और पहले हरियाणा तथा उसके बाद महाराष्टï्र में उसका विजयरथ फिर से दौड़ पड़ने के प्रभावों को देखते हुए, और भी ज्यादा बढ़ गया था।
दिल्ली: दो नावों की सवारी में आप हुई धड़ाम
